“मैं” अन्धकार में।
कोई आयेगा;
मुझे जगायेगा,
जैसे ;
इसी इंतजार में।
“वो” ,
आया ;
एक बार नहीं ,
बार-बार आया ;
मुझे जगाया,
झिंझोड़ा;
और,
"दिया",जलाया ।
पर,
हाय रे ;
“मेरा”
"आलस्य",
"अवचेतना",
और;
उससे भी बढ़कर,
"अहंकार" ।
“मैं”,
“उसे”,
नहीं जान पाया ।
आलस्य में;
श्वांस छोड़ी
"दिया बुझाया" ।
अवचेतन में,
जाने क्या;
बड़बड़ाया ।
और;
अहंकार में तो ,
न
आँख खोली;
न
देखा-सुना,
चादर खींची,
और;
फिर सो
बेहतरीन सन्देश और भावपूर्ण रचना फुलारा साहब !
ReplyDeleteबेहतरीन सन्देश
ReplyDeletebahut khub
शशक्त अभिव्यक्ति ... सच में हमारा आलसी .. हमारा एहंकार ही सबसे बड़ा शत्रू है ... अच्छी रचना है ...
ReplyDeleteबहुत सशक्त रचना...ये "मैं " ही है जो अज्ञान के अन्धकार में डुबो देता है...
ReplyDeletebehtreen ......lajawaab ...........ek sashakt rachna.
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