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Saturday, November 28, 2009

हंगामा है क्यों बरपा

अगर कुछ बिगाड़ सकते हो तो बिगाड़ लो।

तुडवाने वाले बेशक सकते में थे पर तोड़ने वाले तो पुरे जोशोखरोश से तोड़ रहे थे

लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर हंगामा तो इस तरह हो रहा है जैसे कोई नई या अप्रत्याशित बात कह दी हो। किसे नहीं पता कि वह ढांचा(मन्दिर या मज्सिद) तोड़ने में कोई ढंकी-छुपी साजिश नहीं थी, तोड़ने वाले और तुडवाने वाले दोनों पूरी दुनिया के सामने थे तब कोई रोक पाया पिछले सत्रह साल में उनमे से किसी को कोई कुछ कह पाया।

राजनीतिक लाभ लेने-देने के आलावा कोई कुछ कर भी नहीं सकता।

रही इस तरह के आयोगों को बना कर जाँच करवाने की बात, तो ये भी सबको पता है कि इस तरह के ज्यादातर आयोग अपने चहेतों के ऐशो-आराम के लिए बनाये जाते हैं,इसीलिए तो सालों लग जाते हैं, इनके निष्कर्षों पर आज तक कोई सार्थक अमल हुआ ही नहीं।

जहाँ तक लिब्राहन आयोग की बात है तो न तब कानूनन कुछ कर पाए न अब कानूनन कुछ हो सकता है अगर कुछ बिगाड़ सकते हो तो बिगाड़ लो

क्योंकि ये कानून ही अंग्रेजो ने आपस में उलझाये रखने के लिए बनाया है इससे निर्णय नहीं हो सकता चिंता तो अब लिब्राहन साहब को हो रही होगी कि अब खर्चा-पानी कैसे पूरा पड़ेगा

Friday, November 27, 2009

छब्बीस ग्यारह- छब्बीस ग्यारह- छब्बीस ग्यारह

छब्बीस ग्यारह को याद तो ऐसे किया, जैसे पहले कभी ऐसा न हुआ हो, या अब ऐसा होने का डर न रहा हो। हमारे प्रधानमंत्री,गृह मंत्री,और सुरक्षा अधिकारी इस डर को देश के सामने यदा-कदा प्रकट भी करते रहते हैं।
"छब्बीस ग्यारह दो हजार आठ" कोई नई बात थी
और अभी आश्वस्त हुआ जा सकता कि ऐसा फ़िर कभी नहीं होगाजब तक मरने के लिए जांबाज तैयार रहेंगे, जब तक भ्रष्ट अधिकारी-नेता इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले लोगों को अन्दर आने का रास्ता दिखाते रहेंगे इन घटनाओं से बचा नहीं जा सकता
पर
, समाचार माध्यमों के लिए तो कमाई का अवसर है इस मौके को कैसे हाथ से जाने देंथोड़ा कहा- ज्यादा समझना, इससे ज्यादा क्या कहना

Thursday, November 26, 2009

"हम खुश हैं"

1.हम खुश हैं

चालीस रूपये किलो चीनी,

सौ रूपये किलो दालें खाते हुए।

पच्चीस रूपये किलो आलू-प्याज लेकर,

अस्सी रूपये किलो मटर खाते हुए।

हम खुश हैं,…… क्योंकि,

हमारी राष्ट्रपति लड़ाकू विमान में,

उड़ान भर रहीं हैं।

२.हम खुश हैं

आतंकवाद-नक्सलवाद से डर कर,

पुलिस और लुटेरों से सहमे हुए।

घटना-दुर्घटनाओं को सहकर,

गरीबी में महँगाई से-

भूखे पेट सोते हुए।

हम खुश हैं,….. क्योंकि,

हमारी संसदों में

करोड़पतियौं की संख्या और वर्चस्व

बढ़ रहा है

3.हम खुश हैं

निर्लज्ज,भ्रष्ट,अवसरवादी,

नेताओं का,गुणगान करते हुए।

ढीली और भ्रष्ट व्यवस्था से,

हस्पतालों में बेमौत मरकर।

भाग्य को दोष देते हुए।

हम खुश हैं,…. क्योंकि,

हमारे नेता, अमेरिकी नेताओं के साथ,

खाना खा रहे हैं

4.हम खुश हैं

सबकुछ महंगा होते हुए भी,

किसानों को उचित दाम न मिलते हुए।

हमें खाने को कुछ न मिले पर,

नेताओं को करोड़पति बनते देखकर।

क्रिकेट मैच और सिनेमा देख कर।

हम खुश हैं,…. क्योंकि,

हमारे एक नेता पुत्र, गरीबों के यहाँ,

खाने-रहने जा रहे हैं,पांच घंटे ही सही

5.हम खुश हैं

आस्ट्रेलिया-अमेरिका वाले चाहे,

हमें मारें या फ़िर कपड़े उतारें।

हमारे पड़ोसी हम पर,चाहे,

कुत्ते की तरह भौंकें या गुर्राएँ।

हम, परमाणु संपन राष्ट्र हैं,

ये अहसास कर।

हम खुश हैं,…क्योंकि,

हम पर से एकाध प्रतिबन्ध कम होंगे,

वरना हम भूखे मरते

6.हम खुश हैं

हमारे शेयर बाजार व,

सोना-चांदी और अन्य,

घरेलू बाजार तेजी में हैं।

समाचार व मनोरंजन चैनल,

खूब धन बटोर रहे हैं

हम खुश हैं,.... क्योंकि,

दुनिया भर में मंदी का दौर है,

पर,हम, मंदी में भी मंद नहीं हुए

हम खुश हैं ...........

Ham

Saturday, November 21, 2009

आम आदमी के टुकड़े

सब कुछ सहता
कुछ कहता
आम आदमी

आभावों से त्रस्त;
दुखों से ग्रस्त,
आम आदमी

दाल-रोटी में व्यस्त;
टी.वी. देखने में मस्त,
आम आदमी

वर्गोंमें बंटा;
वोटों में घटा,
आम आदमी


सबकाबोझा ढोता;
सबके लिए चिंतित होता,
आम आदमी

किसीको "कुछ" हो जाए,तो;
सबकेलिए रोता,
आम आदमी

Tuesday, November 17, 2009

उत्तराखंड आन्दोलन कारियों की नियति

किसी भी आन्दोलन के विषय में ये बात कही जा सकती है कि, आन्दोलन ज्यादा लंबा चलने पर,फ़िर सफल होने पर, जो लाभ मिलता है वह वास्तविक आन्दोलन कारियों को नहीं मिलता।
उत्तराखंड वाले इसे दूसरी बार अनुभव कर रहे हैं,पहली बार तो सभी देशवासियों के साथ देखा कि भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में बहुत से ऐसे लोग जो अंग्रेजों के भक्त थे लेकिन आजाद होने के बाद एक विशेष पार्टी के सदस्य होने के कारण बहुत से विशेष लाभ और राजनीतिक पदों पर सिरमौर बन बैठे।
दूसरी बार उत्तराखंड आन्दोलन में देख रहे हैं।

जिन लोगों ने लंबे समय से लडाई लड़ी वह आज हाशिये पर कर दिए जा रहे हैं। उनकी किशोरावस्था, जवानी और ताकत, तीस साल का लंबा, समय इस आन्दोलन के लिए लग गया; लोग हँसी उड़ाते थे कि तुम रोज नारे ही लगाते रहोगे पर होने वाला कुछ नहीं है, कहते रहो "आज दो - अभी दो उत्तराखंड राज्य दो" कोई नहीं देने वाला। ये इन बड़ी पार्टियों के लोग बोला करते थे, आम लोग भी खिचाई करने से नहीं चूकते थे, ख़ुद क्रांतिकारी भी आपस में बातें करते थे कि, कभी बनेगा ये उत्तराखंड कभी लगेगा इन लोगों के मुंह पर "झोल" (काला)।
जिन राष्ट्रीय पार्टियों के नेता और कार्यकर्त्ता उन दिनों आन्दोलान्कारियों की हँसी उड़ाया करते थे और आन्दोलन कर्ता सोचा करते थे कि कब लगेगा इनके मुह पर झोल, जब वह समय आया तो बड़ी चालाकी से दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने आन्दोलन अपने हाथों में लेकर, मुंह पर लगे झोल को मिटाने का प्रबंध भी कर लिया। कई आन्दोलन कारियों को अपनी पार्टियों में शामिल कर लिया, कईयों को पद (अपनी सरकारों में) दे कर चुप कर दिया।
हम आन्दोलन कारियों की मांग है कि जो दल उत्तराखंड के आन्दोलन में लगा था उ.क्रा .द. उसके शुरू से जो भी लोग दिल्ली, मुम्बई और अन्य महानगरों वाले भी, इस आन्दोलन में लगे थे उन्हें आन्दोलनकारी माना जाए, पैसा और पद बेशक ये अपने लोगों को बांटें पर उन्हें कमसेकम प्रशस्ति पत्र तो दिया जाए।

Wednesday, November 11, 2009

शुभ संकेत-- विधायक का विधायक को थप्पड़

जी हाँ, ये वास्तव में शुभ संकेत हैं कि नेता लोग अब आपस में "हाथ-पाँव" से लड़ने लगे हैं। अभी तक केवल बातों से ही लड़ते थे, इनके चमचे (कार्यकर्त्ता) इनकी इच्छा पूर्ति (हाथ-पाँव से लड़ने की) कर देते थे, पर ये अब नई शुरुआत है। इसका स्वागत होना चाहिए, इस स्थिति से डरना या घबराना नहीं चाहिए, कोई भी नई बात अटपटी लगती ही है,लेकिन जब पॉँच-सात बार हो जाती है तो उसका चलन हो जाता है। जैसा महाराष्ट्र विधानसभा में हुआ है पहले भी अन्य विधानसभाओं हो चुका है, थोड़ा बहुत कम ज्यादा अलग बात है।
ये ऐसे ही समझ लो जैसे एक इलाके में दो गुंडों के ग्रुप एक-दुसरे से ज्यादा दबदबा जनता में बनाना चाहते है,और इसके लिए वह जनता को अपने-अपने तरीके से धमकाते हैं तथा मारते हैं, मतलब आम जनता का ही नुकशान करते हैं, ऐसे में जब वह आपस में लड़ने लगें तो जनता को खुश होना चाहिए कि अब इनके समाप्त होने के दिन शुरू हो गए हैं। अब तो आम जनता को इन्हें आपस में लड़वाने का उपाय करना चाहिए। स्वयं आपस में नहीं लड़ना चाहिए।

Monday, November 9, 2009

मधू कोड़ा पर “भी” हमको नाज है

ऐसे न जाने कितने नेताओं पर हम नाज करते आ रहे हैं, एक और सही।
हमें ऐसा ही आदर्श चाहिए, देश के नेताओं को;मधू कोड़ा की गिरफ्तारी नहीं, परामर्श चाहिए।छोटे से प्रदेश का मुख्यमंत्री, जो अपनेआप पॉँच हजार करोड़ कमा सकता है वह अगर देश का नेतृत्व करे तो क्या नहीं कर सकता। अपने आप तो मालामाल होगा ही अपने साथियों को भी मालामाल करेगा। आखिर किसी दिन तो देश का और देशवासियों का नंबर आएगा ही।
इस मधू कोड़ा को देश का नेता बनाओ और ये बताओ कि विदेशी बैंकों में सौ लाख करोड़ रुपये भारत का है उसे लाने में कमीशन फिक्स कर दिया जाए तो शायद कोड़ा साहब ज्यादा दिन न लगायें।
नेताओं के लिए आदर्श ही नहीं उनका सपना होता है मधू कोड़ा के जैसा बनना। इस सपने को देखते-देखते ही पूरी जिंदगी बीत जाती है कई नेताओं की। मधू कोड़ा के जैसी किस्मत भी, किसी को किस्मत से ही मिलती है। सड़क छाप नेता से इतने कम समय में मुख्यमंत्री तक पहुंचना बिना भाग्य के हो सकता है कोई यकीन नहीं करेगा, कोई क्या जो भाग्य को नहीं मानता वह भी यकीन नहीं करेगा। मेरे एक मित्र वोटर को दोष दे रहे हैं, भाग्य-वाग्य कुछ नहीं,वोटर की मत मारी गई है कहते हैं। अब जनाब अगर किसी को चख कर वोट देना हो तो शायद ही कोई गलती करे, अपने बीच के आदमी को, अपना जैसा समझ कर वोट दे दिया, पिछले साठ-पैंसठ सालों से दे रहे हैं सभी ऐसे ही निकलते हैं, अब क्या करें। खैर........ हमें तो नाज करना है मधू कोड़ा पर, अकेले नहीं कुछ नहीं किया
अपने साथियों का भी ख्याल रखा, और रखें क्यों नहीं चुनाव के समय काम आयेंगे.... आयेंगे क्या .. ?
आते ही हैं, किस नेता को चुनाव के वक्त धन की जरुरत नहीं पड़ती। जीतने और पद पर पहुँचने के बाद सबसे पहले उनका फायदा देखना उनका कर्तव्य है। सभी ऐसा करते हैं।
आप कहोगे कि नाज किसलिए है तो क्या ये नाज करने वाली बात नहीं है कि इतना मामला खुलने के बाद भी कोड़ा साहब केवल तीन-चार दिन अस्पताल में रहे, उससे भी बड़ी बात कि झेल गए। और उससे भी बड़ी बात कि बिना शर्म व झिझक के अपना मुहं दिखा रहे हैं। आखिर कुछ तो बात होगी बन्दे में हो सकता है बड़े-बड़े साथी हों इस धंधे में। पॉँच हजार करोड़ कुल कमाए , अब इस मामले को रफा दफा करने में पॉँच-सात सौ करोड़ खर्च हो जायेंगे क्या कम नुकशान होता है। फ़िर भी निश्चिंत हैं।

प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि

पत्रकारिता की सार्थकता को पारिभाषित करता, एक सार्थक पत्रकार को आख़िर काल ने अपने में समाहित कर लिया। भगवान् उनकी आत्मा को शान्ति दे ,और उनके परिजनों को इस दुःख को सहन करने की शक्ति दे।

Thursday, November 5, 2009

चढ़ते सूरज को सलाम करो

लेकिन एक बिरादरी है "जो अपने-आप को देश का समाज का पहरुआ बताती है और कुछ हद तक है भी और अपने हथियार को चौथा खम्बा कहती है, जी हाँ पत्रकार और पत्र-पत्रिकाएँ आज के समय में इनके साथ टेलीविजन के लोग भी जुड़ गए हैं जिनका काम ही ये है........


कहते हैं हमें गुलाम बनाने से पहले, अंग्रेजों ने हमारे राजाओं से यहाँ व्यापार करने की इजाजत मांगी थी , उसके बाद धीरे-धीरे पूरे देश पर कब्जा कर लिया; और जो राजा पूरी हेकड़ी के साथ राज करते थे उन्हें एक-एक करके हटाते गए। जिन्होंने विरोध किया उन्हें देश के गद्दारों के साथ मिल कर ठिकाने लगाते गए। इस तरह पूरे भारत पर जब उनका नियंत्रण हो गया तो उन्होंने नीतियाँ बदलने और अपने देश के अनुकूल नीतियाँ बनाना शुरू कर दिया।
यहाँ तक भी प्रजा को कोई परेशानी नहीं हुयी होगी। प्रजा पर जब अत्याचार भी हुए तो उसे उन्होंने अपनी नियति ही माना। क्योंकि ऐसा ही हमारी परम्पराओं से हमारे मन में बैठा था कि राजा भगवान् होता है, लेकिन जब राज और राजा उदासीन पड़ जाए या प्रजा को इन दोनों से कोई विशेष लाभ न दिखाई दे तो प्रजा कहने लगती है कि “कोऊ नृप होय हमें का हानी”। यही हमारे राजाओं ने किया था।
ऐसे में अंग्रेजों ने कुछ प्रभावशाली व थोड़ा धनी-मानी लोगों को पद और पदवियां देकर अपनी सुरक्षा दीवार भी बना ली, इन लोगों ने अंग्रेजों के गुण गाये। आम जनता में उनका डर और इज्जत भी बनाई ताकि विरोध करने वाले डरें और इज्जत करने वाले उन्हें धिक्कारें। लेकिन फ़िर भी शायद ज्यादातर लोगों के मनों में अंग्रेजो के प्रति विद्रोह की भवना बेशक दबी रही हो लेकिन विरोध और गुस्सा दीखता रहता था। क्योंकि अट्ठारह सौ सत्तावन का विद्रोह बेशक असफल हुआ, पर जितना भी हुआ वह बहुत अधिक था, उस स्थिति तक पहुँचने के लिए, बिना आम जन के विरोध के सम्भव नहीं था।
खैर.... जो भी हुआ उसके बाद देश की साधारण जनता जो अभी तक शांत थी वह समझदार हो गई और विरोध के स्वरों को हवा-पानी देने लगी कोई नेतृत्व तलाशने लगी। ऐसी परस्थितियों में अंग्रजों के वो चमचे काम आए जिनको उन्होंने पद और पदवियां देकर न जाने कौन -कौन सा बहादुर बनाया हुआ था।
आम जनता में अंग्रेज सरकार के विरोध की हवा धीरे-धीरे निकालने के लिए,
एक अंग्रेज अधिकारी ने कांग्रेस नाम की संस्था का गठन कर दिया, जिसके बारे में कहा जाता है कि आरम्भ में इसके सदस्य वही बन सकते थे जो अंग्रेजी भाषा जानते हों। ये और बात है कि बाद में इसी कांग्रेस में अंग्रेज विरोधी लोगों ने पकड़ बना कर कांग्रेस के द्वारा ही बड़ा आन्दोलन खड़ा किया पूरे भारत को एक किया और लड़ाई लड़ी।
ये सब भूमिका इसलिए बाँध रहा हूँ कि आज जितनी बुरी स्थिति हमारे देश की है तब(अंग्रेजों के समय )इतनी बुरी स्थिति नहीं थी। तब हम राजनीतिक,आर्थिक और प्रशासनिक रूप से परतंत्र थे। आज तो हम स्वतंत्रता के नाम पर हर क्षेत्र में लुट रहे हैं, अब तो स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि हम अपनी भाषा, अपनी संस्क्रति-संस्कारों,अपनी परम्पराओं-मान्यताओं को न केवल भूल चुके हैं वरन उनकी खिल्ली उडाने में भी शर्म नहीं आती।
भ्रष्टाचार, अब संस्कारित हो गया है अपराध बढ़ते जा रहे हैं, आज हम विकास और प्रगति के नाम पर,शिक्षा के नाम पर आधुनिकता के नाम पर अनजाने में अपनी पीठ थपथपाते हैं अगर अध्ययन किया जाए तो ये हमारे पुराने समय के आगे केवल झुनझुना मात्र ही हैं। उससे भी बुरी बात ये है कि हम(आम जनता) ये सब देख सुन कर भी भुगतते रहने के आदि हो गए हैं या अपनी दाल-रोटी कमाने से हमें समय नही मिल पाता।
लेकिन एक बिरादरी है "जो अपने-आप को देश का समाज का पहरुआ बताती है और कुछ हद तक है भी और अपने हथियार को चौथा खम्बा कहती है, जी हाँ पत्रकार और पत्र-पत्रिकाएँ आज के समय में इनके साथ टेलीविजन के लोग भी जुड़ गए हैं जिनका काम ही ये है कि जो सही हो रहा है उसे आम जनता को बताएं जो ग़लत हो रहा है उसे भी आम जनता को बताने के साथ विरोध के लिए मार्गदर्शन भी करें और नेतृत्व पैदा करने में सहायक हों" वह भी चुप बैठी है क्यों ...?
क्या ये वैसे ही नहीं है जैसे अंग्रेजो के समय उनके चमचे जो या तो रायबहादुर बन चुके होते थे या बनने की उम्मीद में, या कुछ आर्थिक लाभ और ठेकेदारी के लालच में उनके गुण गाते रहते थे और जो अंग्रेजों के विरोधी थे उनकी खिल्ली उड़ाया करते थे।
आज के बड़े बुद्धिजीवी,और अपने को पत्रकार कहने वाले लोग, किसी न किसी लालच में, या हो सकता है डरकर, या हो सकता है अपने जातिद्रोह के कारण, अलग-अलग गुटों में, अलग-अलग विचारधाराओं में, अलग-अलग सरकारों (राजनीतिक पार्टियों ), में बंट कर जो कुछ.... अच्छा भी हो रहा है उसकी अनदेखी कर रहे हैं। या कभी थोड़ा-बहुत ध्यान देते भी हैं तो खिचाई के अंदाज में।
मैं ध्यानाकर्षित करना चाहता हूँ "बाबा रामदेव" के प्रयासों पर। फूंक मार कर लोगों के रोग दूर करने की विद्या से जिस तरह से आम जनता के रोग दूर हो रहे हैं ये दुनिया के ज्ञात इतिहास में सबसे बड़ा चमत्कार है। जो मानव और मानवता के साथ ही स्रष्टि के लिए समर्पित है; लेकिन जैसे हमारे पत्रकार और उनके संस्थान उन्हें नजरंदाज कर रहे हैं वह इनकी ईमानदारी पर सोचने को मजबूर करता है, क्योंकि बाबा रामदेव शुरू से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का विरोध करते हैं इसलिए ...? और जैसे उनके शिविरों में सुबह पाँच बजे लोग पहुँच जाया करते हैं और न केवल प्राणायाम करते हैं , अपने देश की हर समस्या पर बाबा की बातें बड़े ध्यान से सुनते हैं। पूरे देश में जिस तरह "भारत स्वभिमान ट्रस्ट" के सदस्य बनकर एक आन्दोलन शान्ति से तैयार हो रहा है वह अगले दो-तीन सालों में दिखेगा।
जो चमत्कार आज प्राणायाम से हो रहे हैं वह किसी से छुपे नहीं हैं, और इसीलिए आज संसार में बाबा रामदेव किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं लेकिन इन समाचार माध्यमों और उनके नौकरों(पत्रकारों) की भी कुछ नैतिकता बनती है कि नहीं? क्योंकि ये बड़ी डींगें हांकते रहते है कि समाज का भला तभी हो सकता है जब लोकतंत्र का चौथा खम्बा नैतिक हो, निष्पक्ष हो, निडर हो, ईमानदार हो,तभी समाज का भला हो सकता है। इसीलिए ये धारावाहिकों और फिल्मों को चौबीसों घंटे दिखा सकते हैं, पर भारत स्वाभिमान ट्रस्ट जो व्यवस्था परिवर्तन कि हुंकार भर रहा है उसे एक बार भी नहीं दिखाते। भारत की समस्याओं पर विचार तो करते हैं एक-एक घंटे के कार्यक्रम चलाते हैं पर इसी विषय पर बाबा रामदेव ने जो दर्शन दिया है या विचार दिए है ये उनसे परहेज कर जाते हैं, राजीव दीक्षित जो अर्थशास्त्र के आंकडों के साथ बात बताते हैं ,हमारे देश में कितनी लूट हो रही है यह बताते हैं ये उन बातों से परहेज कर जाते हैं....आख़िर क्यों...? क्या इनका ये व्यवहार इनकी ईमानदारी पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता ...?
मैंने पढ़ा है तथा देखा (उत्तराखंड आन्दोलन में ) भी है कि जब स्वतंत्रता आन्दोलन शुरू हुआ था तो जिन क्रांतिकारियों को जल्दी समझ आ गया था कि हमें आजाद होना चाहिए ,और वह इसकी बात करते थे या कोई प्रदर्शन करते थे तो उपरोक्त चमचे, लाभार्थी, या कोई बहादुर का खिताब पाए लोग उनकी खिल्ली उडाते थे।
ऐसा तो मैंने प्रत्यक्ष रूप से उत्तराखंड आन्दोलन में भी देखा है, जो लोग उत्तराखंड प्रदेश बनवाना चाहते थे उनकी अन्य पार्टियों के कार्यकर्त्ता हँसी उडाया करते थे , आज वही सत्ता में है मलाई खा रहे हैं। यही व्यवहार वर्तमान में इस बिरादरी का है। कल को वा-वा बटोरने वाले यही होंगे।
अब देता हूँ एक उदहारण, इस तबके के लोगों के व्यवहार का , आज (14 नव)मधुमेह दिवस है (डायबिटीज डे ) बहुत बड़ी-बड़ी बातें प्रिंट व इ मीडिया में हो रही हैं। बड़े-बड़े लेख लिखे गए हैं। चैनलों पर वार्ताएं चल रही हैं,विज्ञापन दिखाए जा रहे हैं, सरकार भी दिखाने के लिए यही सब कर रही है, ये जानते हुए भी कि प्राणायाम से सैकड़ों मधुमेह के रोगी अब तक ठीक हो गए हैं। और तारीफ की बात ये,कि कई लेखों में इन रोगियों के लिए निर्देश भी लिखे हैं कि व्यायाम-योग करने से इसे नियंत्रित किया जा सकता है,पर बाबा रामदेव का नाम व उनके द्वारा कराया जा रहा प्राणायाम का उल्लेख उनमें करने से इनकी प्रतिष्ठा कम हो जायेगी। पता नहीं क्यो....?
हो सकता है सभी ऐसे न हों मैं ये उनके लिए नहीं लिख रहा, लेकिन जो हैं उन्हें अपने अन्दर झांकना चाहिए; क्या वह अविश्वास का पात्र नहीं बन रहे, या कहीं इन्हे कोई डर या लालच तो नहीं, जैसा अंग्रेजों के ज़माने में उस समय के संभ्रांत समझे जाने वाले लोगों में था।

क्योंकि बाबा रामदेव बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का,उनके जीरो तकनिकी से बने सामान का विरोध करते हैं, क्योंकि बाबा अंग्रेजों के बनाये कानून जो आजाद भारत में लागू हैं उनका विरोध करते हैं, क्योंकि बाबा स्वदेशी का आह्वान करते हैं कि स्वदेशी शिक्षा, चिकित्सा , न्याय और राज व्यस्था लागू करने की बात करते हैं इसी का नाम उन्होंने सम्पूर्ण आजादी का आन्दोलन रखा है
तो भारत के संभ्रांत लोगो जागो चमकते हुए सूरज को देखने का प्रयास करो तथा समर्थन करो क्योंकि विरोध करने वाली बात स्वामी राम देव कर ही नहीं रहे हैं।




























































































































Wednesday, November 4, 2009

इसीलिए तो आजाद हुए थे अपनों के लिए मरना गर्व की बात है

पी .एम. की सुरक्षा के कारण एक व्यक्ति की जान गई।
क्या हुआ जो एक व्यक्ति की जान गई, अपने पी.एम. के लिए दी- कोई विदेशियों के लिए तो नहीं दी। जब विदेशियों का राज था तो और बात थी अब तो अपनों का अपनों के लिए अपनों के द्वारा चल रहा राज है जैसा हम (हमारे पूर्वजों ने ) ने बोया था वही हम काटेंगे । हम स्वतन्त्र हुए ही किसलिए थे विदेशियों के लिए मरने में मजा नही आता था गुलामी का अहसास होता था, इसीलिए तो आजाद होने को क्रांति की थीअब अपनों के लिए मरने में गर्व होता है साथ ही कुछ धन भी मिल जाता हैकितने उदार नेता हैं हमारे उन्होंने देश में इस तरहकी दुर्घटनाओं में मरने वालों के लिए आर्थिक सहायता की व्यवस्था की हुयी है ।

Tuesday, November 3, 2009

मकबूल फ़िदा हुसेन भारत आना चाहते हैं

हुसेन साहब वतन वापसी के लिए तरस रहे हैं, सरकार और हमारे प्रगतिशील प्राणियों को भी उनकी कमी खल रही है , देश का माहौल नीरस हो रखा है, जब से आप गए हैं हमारे यहाँ के प्रगतिशीलों
गाल बजाने या कलम घिसने को कोई मुद्दा ही नहीं मिल रहा। इसीलिए गृह मंत्री से फरयाद की, उन्होंने भी तुंरत सुन ली क्योंकि वह भी आप की बनाई तशवीरों को समझ लेते हैं और आपके फैन हैं,और फ़िर आप तो वैसे भी शायद स्वयं निर्वासित हैं कौन सा आपको जिला बदर (किक आउट) किया गया था, जो आप गृह मंत्री के फौन का इन्तजार कर रहे हो। आप आ जाओ आपका स्वागत होगा हमारे प्रगतिशील भाई तो प्रत्यक्ष में और गैर प्रगतिशील (जिन्हें हिंदू कहा जाता है)अप्रत्यक्ष रूप से तुम्हारे स्वागत में आँखें बिछाए बैठे हैं। गैर प्रगतिशीलों को तो आपके आने का फायदा ये मिलेगा कि उन्हें आपकी बनाई तशवीरों का विरोध करने पर कुछ प्रचार मिलेगा और इनकी उर्जा भी किसी सार्थक कार्य पर खर्च होगी। वरना ये लोग अपनी उस असीम उर्जा को कहीं उत्तर भारतीयों पर कहीं आपस में ही खर्च कर दे रहे हैं।या राष्ट्रभाषा के विरोध में जान लड़ा दे रहे हैं। तो जनाब आप कुछ इनके बारे में भी सोचो जल्दी आओ आकर एकाध पेंटिंग चाहे आधी-अधूरी ही बना देना बनाओ बहुत बड़ा अहसान होगा। जब से आप गए हो कोई भी बड़ा विवाद तशवीरों पर नही हुआ है सब (आपके समर्थक और विरोधी ) बोर हो रहे हैं, आओ और उनकी बोरियत दूर करो। इसमे आपका भी लाभ है एक तो मंदी से फ़िर आपका प्रचार कम होगया जिससे आपकी पेंटिंग कम बिक रही होंगी, यहाँ आते ही जो विवाद होगा उससे आपको प्रचार मिलेगा फ़िर आप अपनी काबिलियत अपनी तशवीरों में उंडेलना बस आपकी मंदी भी दूर और सबका भला ही भला ।

Monday, November 2, 2009

(ना) पाक के मुहँ

आज समाचार पत्र पढ़ते हुए एक शीर्षक देखा (पूरा समाचार पढने का मन नहीं हुआ) कि,हमारे गृहमंत्री ने कहा “पाक से फ़िर हमला हुआ तो मुहँ तोड़ जवाब” (देंगे)।
अब यहाँ पर मेरी समझ में नहीं आ रहा कि पाकिस्तान का कौन सा मुहँ तोडेंगे, उसके मुहँ का तो पता ही नहीं चलता। उसने एक मुहँ तो अमरीका की गोद में छुपा रखा है , एक मुहँ तालिबानों के लबादे में छुपा रखा है ,जो मुहँ दीखते हैं वह भी पता नहीं क्या-क्या बोलते रहते हैं मुहँ हैं या कुछ और।
तो साहिब मुहँ तोड़ने से पहले देख लेना कि असली मुहँ ही तोड़ रहे हो या केवल लकीर पीट रहे हो।

Sunday, November 1, 2009

कानून का शिकंजा

बड़ा मजबूत है,इस बार मधु कोडा पर कस गया है , अब नहीं बचेगा ये “पूर्व सी.एम ऑफ झारखण्ड”। आज तक कोई बचा है…? ये भी नहीं बचेगा। कैसे- कैसे मंत्री-संतरी (अधिकारी-कर्मचारी) आज जेलों के अन्दर चक्की पीस रहे हैं , कई तो फांसी पर चढा दिए हैं। कितना कड़ा कानून है हमारा ।

२.इन जैसों की संपत्ति से ही तो सरकार का काम चल रहा है, वरना हम (आम जन) सरकार को क्या दे रहे हैं चलने के लिए । हमारे नेता-अधिकारी करोड़ों-अरबों कमाते हैं तब कुछ सरकार (अपने साथियों) को कुछ अपने रिश्तेदारों को देते हैं , दुनिया या सरकार इसी तरह चल रही है।

३. ये विद्या, ऐसे लोगों को (कोड़ा जैसों को ) सार्वजानिक करनी चाहिए । मतलब एक किताब लिखनी चाहिए ,मेरा दावा है कि पूरी दुनिया में मैनेजमेंट कोर्सों व अन्य संस्थानों और नेताओंमें बेहिसाब बिकेगी इनके धन में और बढोतरी होगी साथ ही इनका काला धन सफ़ेद भी होगा ।
४. किताब का टाईटल होना चाहिए पद मिलते ही कमसेकम समय में अधिक धन कैसे कमायें और ठिकाने लगायें।