ताजा प्रविष्ठियां

Thursday, July 30, 2009

अपने पाँव पर कुल्हाड़ी


जब भी कोई "भ्रष्ट" निलंबित होता है,
मुझे ऐसा लगता है जैसे नेता या अधिकारी अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहे हों ।
सरकार ,नेता या उच्चाधिकारी जब भी किसी भ्रष्ट अधिकारी या कर्मचारी को निलंबित करते हैं तो मुझे हँसी आजाती है , क्यों ?
इसके दो कारण हैं पहला तो ये कि ये लोग किसी भ्रष्ट को निलंबित करके अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं ,क्योंकि वह अधिकारी भ्रष्टाचार से जो कुछ कमाता था उसमे इनका हिस्सा भी होता था । दूसरा ये ,कि निलंबन का दिखावा केवल आम जनता को दिखाने के लिए करते हैं उसे तो बिना काम किए वेतन मिलता रहता है और
वैसे भी वह तब तक इतना रूपया कमा चुका होता है की उसे निलंबन से कोई फर्क नही पड़ता ।

जमाना बदल रहा है... ?

कुछ समय से मैं देख रहा हूँ कि ,टी वी विज्ञापनों में अश्लीलता कुछ कम हो रही है ,शायद इस क्षेत्र में नई पीढी का अवतरण हो रहा है जो बिना नग्नता दिखाए भी अपनी बात को अच्छे तरीके से दिखा सकते हैं ।

पिछले कुछ समय मैं देख रहा हूँ कि कुछ ऐसे विज्ञापन जिन्हें हम पूरे परिवार के साथ बैठे हुए देखने में असहज अनुभव करते थे , अब नहीं दिखाई दे रहे ,या कम दिखाई दे रहे हैं ।
एक विज्ञापन जो दिन भर में कई बार दिखाई देता था और अलग-अलग ब्रांडों की गिनती करें तो शायद सैकडों बार दीखता था सुरक्षित यौन संबंधों के नाम पर या जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर ,कंडोम का प्रयोग ,इसी तरह टी.वी.विज्ञापनों में अश्लीलता कुछ कम सी हो रही अनुभव हो रही है । ऐसा केवल मुझे अनुभव हो रहा है या ऐसा सच में हो रहा है । काफी अच्छे विज्ञापन भी दिखने लगे हैं जिन्हें बार-बार देखने को मन करता है । शायद इस क्षेत्र में नई पीढी का अवतरण हो रहा है जो बिना नग्नता दिखाए भी अपनी बात को अच्छे तरीके से दिखा सकते हैं।

Tuesday, July 28, 2009

शर्म उन्हें आती नहीं मगर

वो तथाकथित मानवाधिकारवादी ... नेता ........क्या अब भी मुहं उठाये बिना शर्म महसूस किए दिखाई दे रहे हैं ।........................................................................................................................................

बाटला हॉउस (दिल्ली) की मुठभेड़ को फर्जी और पुलिस के जांबाज लोगों की शहादत पर ऊँगली उठाने वाले "वो" तथाकथित मानवाधिकारवादी (स्वयं सभ्य, activist ) और उनकी बातों में आने वाले "नेता" जो चिल्ला-चिल्ला कर अपने बाल नोचते हुए ,आँखे बंद करके इस मुठभेड़ को एकदम नकली घोषित करार दे रहे थे ,क्या अब भी मुहं उठाये बिना शर्म महसूस किए दिखाई दे रहे हैं ?
और टी.वी.चैनल भी केवल अपनी नाक बचाने को इस समाचार को दिखा गए बस।

कविता को आगे बढायें

मेरी कल की पोस्ट में कविता की मैं कुछ ही लाईनें लिख पाया था आगे आप लोगों को लिखने के लिए आमंत्रित किया है
कृपया अवश्य देखें आपका स्वागत है। आपके नाम से मुख्य कविता की लाईनों के साथ उसी पोस्ट में प्रकाशित किया जाएगा। या नई पोस्ट भी बनाई जा सकती है।

Monday, July 27, 2009

एक वृक्ष

अगर आप इन पंक्तियों को अपनी प्रतिभा व कल्पना शीलता से आगे बढ़ा सकते हैं तो टिप्पणी में लिख कर भेजें जिन्हें मैं आपके नाम के साथ मुख्य पोस्ट के नीचे से लगाता जाऊंगा । हाँ, इसके लिए कोई सुझाव हो तो वह भी जरुर बताएं उक्त पंक्तियों के लिए मेरे.............
एक वृक्ष,हरा-भरा,सुंदर सा,
बड़ा, घना और मीठे फलों का,
फैली व पुष्ट शाखाओं ,मजबूत तने,
घनी छाया और गहरी जड़ों का ।
एक
वृक्ष ……
सदियों से खड़ा, आँधियों से लड़ा,
लड़ता रहा , पर डिगा नहीं जरा,
असंख्य प्राणियों का आश्रयदाता,
ऋषि जैसी विशालता और ममत्व से भरा ।
एक
वृक्ष ………
मित्रो मैं कवि नहीं हूँ पर कभी-कभी कुछ पंक्तियों की तुकबंदी
जब मिल जाती है तो मुझे वह कविता का आभास सा देती है,अब उक्त पंक्तियों को ही ले लीजिये ,इससे आगे मैं नहीं लिख पा रहा हूँ ,क्योंकि कवि नहीं हूँ , अगर आप इन पंक्तियों को अपनी प्रतिभा व कल्पना शीलता से आगे बढ़ा सकते हैं तो टिप्पणी में लिख कर भेजें जिन्हें मैं आपके नाम के साथ मुख्य पोस्ट के नीचे से लगाता जाऊंगा । "हाँ इसके लिए कोई सुझाव हो तो वह भी जरुर बताएं" । उक्त पंक्तियों के लिए मेरे मन में जो चित्र बना है,वह आपको भी बता दूँ ,जिससे आप भी उसी भावः में लिखें ।
मित्रो मैं भारतीय सभ्यता-संस्कृति को एक बड़े वृक्ष के रूप में देख रहा हूँ जो मैंने लिखा है इससे आगे मैं इस वृक्ष पर बुराईयों रूपी झाड़-झंखाड़, विष बेलों को चढ़े देखता हूँ जिन्हें समय-समय पर सुधारवादी आन्दोलनों द्वारा हटाया भी गया ,अब उन्हीं बुराइयों,व्यर्थ परम्पराओं रूपी झाड़-झंखाड़ की आड़ में अपने को प्रगतिशील मान कर जो लोग वास्तविक वृक्ष पर ही प्रहार करने लगे ये नादान हैं ,इन्हें ये नहीं पता कि इनके कारण ही सामान्य विरोध को जब अनदेखा करके ये जिद में और अधिक उकसाते हैं तो ,श्रीरामसेना जैसे उग्र रक्षक पैदा हो जाते हैं जिसकी फ़िर आलोचना होती है अगर ऐसा बार-बार होगा तो जो शांत लोग भी हैं वह भी उबाल खाने लगेंगे,जिस तरह ये सब प्रगतिवादी (विनाशवादी) टी.वी. व प्रिंट मीडिया वाले एक हो जाते हैं और केवल अपना ही राग आलापते हैं इनका ये आचरण भी ग़लत है । इनके इस आचरण से अगर उबाल खाते हिंदू एक हो कर श्रीराम सेना जैसे संगठनों कीतरफदारी करने लगे तो क्या होगा ? नेता तो बिन पेंदी के लोटे हैं जहाँ वोट ज्यादा दिखाई देंगे ये वहां को दौड़ लेंगे और हरियाणा की पंचायत की तरह फ़िर चाहे कितना ही ग़लत काम होगा ये अनदेखी करेंगे ।इसलिए परम्परावादी देश में ग़लत परम्पराओं के विरोध की आड़ लेकर जो सही संस्कृति है सभ्यता है उनका विरोध बंद करो ,खुलेपन (विनाशकाले विपरीत बुद्धि ) की हिमायत में पश्चिमी कुसंस्कृति को फैलाने का प्रयास मत करो ।

Sunday, July 26, 2009

पढ़े लिखे अपराधी

जब तक भारत में शिक्षा दर कम थी लोग ज्यादातर अनपढ़ थे तो अशिक्षा को अपराधों का कारण माना जाता था । इसलिए शिक्षा को बढ़ावा दिया गया ,उसके बाद बेरोजगारी को अपराधों का कारण माना गया।
लेकिन आज की स्थितियां देखो तो सभी बड़े अपराध ,घोटाले से लेकर फर्जी मुठभेड़,किडनी व्यापार,रक्त व्यापार,ठगी,हत्या,बलात्कार , चोरी, रिश्वत खोरी व अन्य, उच्चशिक्षित अपराधियों द्वारा किए जा रहे हैं। आख़िर कारण क्या हैं,क्या हमारी शिक्षा में दोष है या शिक्षा ने संस्कार पीछे धकेल दिए । इस पर कौन ध्यान देगा ?
पहले से इतने अपराध तो नहीं होते थे ।

Saturday, July 25, 2009

पोस्टर

आजकल महंगाई इतनी ज्यादा हो गई है कि हम जैसे सामान्य आय वाले परिवारों को कुछ भी खरीदने से पहले सोचना पड़ रहा है ,ऐसे में सरकार भी केवल बी.पी.एल। कार्ड वालों के लिए तो अनाज व अस्पतालों में व अन्य भी कई जगह छूट का लाभ दे रही है ,इस छूट के लाभ के लिए कई खाते पीते लोग भी अपना बी.पी.एल कार्ड बनवा चुके हैं पर हम तो उसमे भी कुछ नही कर पाए ,इसी सन्दर्भ में ये पोस्टर चर्तित हो रहा है।

सच का सामना

हाँ सच का सामना अवश्य करना चाहिए ,
मनुष्य, आरम्भ में तो नंगा ही था , (पशुओं की तरह)
वस्त्रों की आवश्यकता क्यों पड़ी ? ये जानना चाहिए ।
करता था जीवन-यापन वनों में ,(वन्यजीवों की तरह )
सामाजिक बंधन की आवश्यकता क्यों पड़ी ? ये जानना चाहिए ।
रह सकता था मनुष्य भी अकेला ,(किसी हिंस्र पशु की तरह)
पारिवारिक मर्यादाओं की आवश्यकता क्यों पड़ी ? ये जानना चाहिए ।
पारिवारिक मर्यादाएं कम न थी , (हिन्दुस्तान में )
सामाजिक मर्यादाओं की आवश्यकता क्यों पड़ी ? ये जानना चाहिए ।

अरे, सच जानने वालो ये भी सच है, कि हम कुछ भी "खाद्य" खाएं ,
वह मल ही बनेगा ,इसका मतलब ये तो नहीं कि ,मल ही खाना चाहिए ।

Friday, July 24, 2009

नेताओं को डर

पिछले दिनों मैंने सुना सरकार नेताओं की सुरक्षा हटाने की सोच रही है । लालू,मुलायम व अन्य नेताओं को गुर्राते भी देखा। आज पढ़ा कि सरकार नेताओं की सुरक्षा नहीं हटाएगी।
आख़िर सरकार को ये सब दिखावा एक ड्रामे के तौर पर क्यों करना पड़ा ?
हिन्दुस्तान की एक सौ पन्द्रह करोड़ आम जनता को दिखाने के लिए कि देखो, हम तो चाहते हैं कि खर्चा कम हो पर ये नेता नहीं चाहते ।
नेताओं की सुरक्षा हटा कर तुम उन्हें एक आम आदमी की तरह क्यों बनाना चाहते हो ,जब आम आदमी नहीं चाहता कि उसका नेता उसके बीच में बिना सुरक्षा के आए तो तुम क्यों चाहते हो। रही खर्चे की बात तो भारत की जनता अपने आप चाहे भूखे –नंगे रहे, पर, इनका खर्चा वहन करेगी , आजादी के बाद से ही करती आ रही है। अब रही बात सुरक्षा की ,तो भई सुरक्षा के लिए कमांडो चाहिए किसे ? वह तो शान दिखाने को चाहिए ,नहीं समझे, जनता उसे ही नेता मानती है जो कम से कम दस गार्डों से घिरा हुआ हो, इक्का-दुक्का गार्ड तो लल्लू-पंजू एम.एल.ऐ.,उ,मैल्ले के पास होता है। देखो भई सुरक्षा ,आख़िर किससे चाहिए ? आम जनता से कोई खतरा होता नहीं, जिस दिन आम जनता से खतरा होने लगेगा कोई नेता बनने को तैयार ही नहीं होगा ,आतंकवादियों से सुरक्षा का कोई फायदा नहीं, क्योंकि उन्होंने अगर हमला करना होगा तो कितनी ही सुरक्षा हो वह हमला कर ही देंगे ,अब रहे गुंडे बदमाश जिनका कि वास्तव में इन नेताओं को डर होता है क्योंकि अधिकांश ये उन्हीं में से आए हैं।तो सुरक्षा है किसके लिए इनको दो ।
जनता अपने खून-पसीने की कमाई से जो कर्मचारियों को पाल रही है ,
उनका कहीं न कहीं तो इस्तेमाल होना ही चाहिए ,सबसे पहले नेता(नेत्री भी) फ़िर अभिनेता (अभिनेत्री भी), अधिकारी, खिलाड़ी अब तो डॉक्टर भी, कुछ दिनों के बाद सरकारी सभी कर्मचारी भी सुरक्षा मांगेंगे क्योंकि इनकी हड़ताल से जनता परेशान होने लगी है ,जो जो विशेष बनता जाता है उसे सुरक्षा देकर आम आदमी से अलग कर दो ,तभी उसे अपनी हैसियत का आभास होता है । जनता का क्या है जब इनको बड़ा बना सकती है इनकी फिल्मों,मैचों के टिकट खरीद कर या विज्ञापनों से प्रेरित होकर ,इन्हें वोट देकर, तो क्या इनका सुरक्षा का खर्च नहीं उठा सकती ?

जाट रे जाट

अरै ताऊ, ले..ल्ली ना एक और जान,तेरी खाप ने ,
पड़गी होगी ठंडक थारे सरपंचों के कलेज्जे में।
नाम रौशन कर दिया तैन्ने हरियाण्णे का ।
यूँ कहै... गोत्तर में ब्याह कोन्या ना होण देगा,
अरै मेरे जाट ताऊ, या... तो बता…; गोत्तर बणाये किस ने ,वो तेरे सुप्न्ये में आया था के, यूँ कहने को, के गोत्तर वाले सब भाई-बहन हों…उनका ब्याह ना होन दियो।
अरै ताऊ, तैने तो धरम को भी भरम में डाल दिया ,अर नेता क्यूँकर मुहं दिखायेंगे अब। बस , तू शर्म ना करियो ,जाट ही रहियो आदमी ना बण जईयो,आदमी बण ग्या तो दिमाग चाल्लेगा, अर दिमाग चला तो "ताई" भी बहन नजर आओगी। सोच ले ताई बहन नजर आगी तो फेर के करेगा । “ जाट रे जाट कै दूनी आठ, जाट बोला सोलैह दूनी आठ" वाली कहावत सुणी होगी तैने, इशे सही करने की सोच। पंचायत, न्याय करने को करें ,अन्याय को नहीं।

Thursday, July 23, 2009

कलियुग में भी


बचपन में हमारे घर में एक धार्मिक पत्रिका आती थी “कल्याण”; पिताजी उसे पढ़ते थे और संभाल देते थे । जब मैं बड़ा हुआ, कुछ पढ़ने लायक भी हो गया तो वह पत्रिका मुझे भी पढ़ने में अच्छी लगने लगी, क्योंकि उसमें कई प्रेरक कहानियाँ व प्रसंग होते थे । साथ ही धर्म के विषय में ज्ञानवर्धक लेख व जानकारी भी होती थी।
पुरानी प्रतियाँ पढ़ कर, जो 1947 के आस-पास की होती थीं , लगता था कि आजादी के आन्दोलन में भी इस तरह की धार्मिक पत्रिकाओं का योगदान कम नहीं रहा होगा ,जो ,चरित्र निर्माण, संस्कारवान समाज,धर्म-आध्यात्म, देशप्रेम, स्वाभिमान ,सामाजिक उत्थान,नैतिक मूल्यों के लिए समर्पित थी।
ये पत्रिका छपती थी, “गीताप्रेस गोरखपुर” से ।
“गीताप्रेस,गोरखपुर”

अभी तक 45.45 करोड़ से अधिक पुस्तकें जिनमें 8.10 करोड़ श्रीमद्भागवत गीता 7.5 करोड़ रामचरित मानस कुल 1500 प्रकाशनों में लगभग 650 पुस्तकें, भारत की लगभग सभी भाषाओँ में प्रकाशन ,उत्कृष्ट छपाई ,बढ़िया कागज ,बेहतरीन फोटो- कवर व जिल्द ।
और मूल्य, नाम मात्र का , आख़िर कैसे चलता होगा ये सब,कर्मचारी भी होंगे अधिकारी भी होंगे ,ये संस्था चंदा या दान नहीं लेती इसके किसी भी ट्रस्टी का संस्था के

साथ किसी प्रकार का स्वार्थ या आर्थिक सम्बन्ध नहीं है । सोलह शाखाओं,तीन बिक्री केन्द्र,तीस स्टेशन स्टाल और हजारों निजी दुकानदारों के माध्यम से कार्य करने के लिए और छापाखाना में काम करने वाले सब मिला कर अच्छी-खासी संख्या कर्मचारियों की होगी पर आज तक कभी न तो हड़ताल के बारे में सुना न कभी घाटे के बारे में सुना।( भगवान् किसी की नजर न लगे )।
क्या सरकार के कर्मचारियों के लिए ये उदाहरण नहीं हैं स्वयं सरकार के लिए उदहारण नहीं हैं या घाटे में जा रही उन् निजी कम्पनियों के लिए उदहारण नहीं है जिनके लिए आए दिन पैकेज घोषित करने की मांग की जाती है या पैकेज घोषित किए जाते हैं। न किसी सेज की जमीन इन्होंने खरीदी न किसी का बुरा किया ।
हाँ नास्तिकों, कम्युनिष्टों, प्रगतिशीलों और बौद्धिक नक्सलवादियों की आँख में जरुर खटकते होंगे ।


दरअसल आज एक समाचार पढ़ा कि मंदी के इस दौर में भी “गीताप्रेस गोरख पुर” को कोई असर नहीं पड़ा ।
1923 में स्थापित धार्मिक साहित्य का प्रकाशन सस्ते से सस्ते मूल्य पर प्रामाणिक और उत्कृष्ट पुस्तकों को लोगों को उपलब्ध करवाना निरंतर इसी कार्य में लगे रहना ,इस कलियुग में भी, क्या अपने-आप में आश्चर्य चकित करने वाली बात नहीं है।
ऐसा आदर्श उदाहरण जिससे सभी को प्रेरणा लेनी चाहिए ।

Wednesday, July 22, 2009

ग्रहण

ऊपर आसमान में सूर्य पर ग्रहण लगा,
"नीचे न्यूज चैनलों पर ,
कई घंटे पहले से कई घंटे बाद तक ग्रहण लगा रहा ।
लोग आसमान में ग्रहण देखते रहे ,
हम "न्यूज चैनलों पर लगे ग्रहण" को देखते रहे ।

नेतृत्व


संसद में बबाल करके
और नाक नीची करवाओ,
दुनिया को जो नहीं पता ,
तुम चिल्ला-चिल्ला कर बताओ ,
अगर कुछ स्वाभिमान बचा है अभी तो ,
मेरे महान देश के नेताओ,
कुछ ऐसा माहौल बनाओ,
कि, उस एयरवेज़ कम्पनी से,
भारत का आदमी तो क्या,
कोई मच्छर भी न जाए,
असली नेता और नेतृत्व
हो अगर अपने असली ..... के

तो कुछ करके दिखाएँ ।

Tuesday, July 21, 2009

मैं भी चालाक हो गया

अब मैं भी चालाक हो गया ,
दिन भर लोगों को ठगता रहा ,
सुबह मन्दिर में पूजा कर आया ।

अपने पड़ोसी को देख कर।
अब मैं भी चालाक हो गया।

Sunday, July 19, 2009

सोने की चिड़िया

कहते हैं “कभी भारत सोने की चिड़िया था” पर मेरा मानना है कि भारत सोने की चिड़िया अभी भी है,कैसे …..? आप भी जानिए ।
दुनिया का सबसे महंगा लोकतंत्र हमारे यहाँ है ।
जिस आदमी को गरीब बताया जाता है कि ,बीस रूपये रोज की कमाई होती है तो वह खर्च भी बीस रूपये से ज्यादा नहीं कर पाता। वह गरीब आदमी कितना अमीर है स्वयं उसे भी अंदाजा नहीं है। हैं तो हम लोग भी गरीब की श्रेणी के आदमी पर हमारे बंद खजाने से जितना रुपया हमारे लिए व्यवस्था बनाने वाले व्यवस्था बनाने के नाम पर खर्च करते हैं।
उसे देख कर मेरा सीना फूल कर कुप्पा हो गया । कि हम भी अमीरों की श्रेणी के आदमी हैं।
आप भी बताईये क्या हम गरीब हैं ? क्या ये रुपया हमारा नहीं है ?
जिस देश में एक सांसद का आठ हजार पाँच सौ रूपये रोज
राष्ट्रपति साढे सात लाख रोज
प्रधान मंत्री सवा छः लाख रोज
मंत्रिमंडल साढे आठ सौ करोड़ सालाना
इसी तरह राज्य सरकारों में
राज्यपाल का पन्द्रह से बीस करोड़ सालाना
मुख्यमंत्री तेरह से सत्रह करोड़
क्या हम गरीब मुल्क हैं ?
(ये आंकडे बाबा रामदेव के मंच पर
श्री राजीव दीक्षित बताते हैं।
आँखे खोलने के लिए इतना ही काफी है
वह तो और भी बताते हैं) ।

गुमशुदा

हम तुम्हें ढूँढते रहे
महीनों से,
खुले मेनहोल के पास ,
टूटे-फूटे बस अड्डे के पास,
सालों से नहीं बन पा रही
सड़कों के पास ,
बिना डॉक्टर के
अस्पतालों में ,
बिना मास्टर के
विद्यालयों में ,
अनियंत्रित गाड़ियों से कुचलते
लोगों के पास ,
मिलावट करते जहर की
खाने के सामानों की फैक्ट्रियों में,
सूखती नदियों में ,
जलते जंगलों में ,
मंहगे हुए बाजारों में ,
फर्जी मुठभेडों में ,
लुटती आबरू में ,
सरकारी हड़तालों में ,
भूखे मजदूरों में ,
निराश जनता में ,
तुम कहाँ हो …, तुम कहाँ हो…., तुम कहाँ हो….
?

काँवड़ यात्रा

आज कल हमारी कॉलोनी में माहौल कुछ शांत सा हो रखा है,
न कहीं से कोई गाली सुनाई देती है,न कोई झगड़ा हो रहा है,
लड़कियां तो "बिना किसी को साथ लिए" बाजार भी हो आ रहीं हैं,
गलियों में जैसे चिडियाएँ चहचहा रहीं हैं …. आख़िर ,
ये क्या हो रहा है …ये क्या हो रहा है … ?
हमने जब जानकारी ली तो पता लगा ,
कॉलोनी के कुछ …….. प्रकार के लोग काँवड़ यात्रा पर गए हैं ।

Saturday, July 18, 2009

बुरा मत देखो बुरा मत ………

मान लो कोई पागल , सूट-बूट पहन कर , जो पैसे वाले बाप की औलाद हो,आपके घर के आस-पास या मौहल्ले में, रास्ता चलते ,बार-बार थूक रहा हो जहाँ पर कूडे़दान दिखे उसमें से कूड़ा निकाल कर बिखरा देता हो, तो आप क्या करेंगे जाहिर है पहली कोशिश तो उसे रोकने की करेंगे, पर वह मानने को राजी नहीं या लड़ने पर उतारू होगा,अगर आप उससे मजबूत हुए तो उसे पीटेंगे ,अगर पीटा तो वो और उसके सगे-सम्बन्धी तुम्हारे साथ-साथ पूरी जात को कोसने लगेंगे , कमजोर हुए तो पुलिस में ख़बर करेंगे , पर एक काम जो आखीर में आपको करना ही पड़ेगा, वो ये, कि उस थूके हुए पर मिट्टी डालनी होगी और कूड़े को साफ करना ही पड़ेगा। वही अभी भी करिये ऐसे चैनलों को देखने का मोह त्याग कीजिये ,समाचार चैनल भी केवल वही देखिये जो समाचार दिखाते हों वरना, अख़बारों में समाचार पढ़ना दोबारा शुरू कीजिये बस, इन पागलों के किस्से कहानियाँ अपने आप समाप्त हो जाएँगी।

नेता बनाम नेता

रीता बहुगुणा जोशी बनाम मायावती दोनों में झगड़ा शुरू, बड़ा मजा आएगा, अभी तक वोटों के लिए और अपने कार्यकर्ताओंकी संख्या बढ़ाने के लिए नेता, दिखावे के तौर पर लड़ते थे। अंग्रेजों के समय से ये परम्परा चली आ रही है।हमारी आजादी के " स्वयंघोषित , एकलौते नेता और पार्टी वाले" बाहर अंग्रेजों का डटकर विरोध(दिखावा) करते थे संसद में उनकी जी हजूरी करते थे। बाहर आम जनता इन्हें देख कर ज्यादा जोश में आ जाती थी और पिटती थी या मरती थी ये अहिंसावादी बन कर जेलों के अन्दर शरण लेलेते थे।
यही आज के नेता करते आ रहे थे ,इनके दिखावे के कारण कार्यकर्ता आपस में खूनखराबा तक कर
देते हैं, पर ये सचमुच की लड़ाई है।
मजा तो आएगा ही।
अब हम तो आम आदमी की श्रेणी के आदमी हैं कोई पार्टी वाले होते तो दो बंदरों की लड़ाई में बिल्ली के फायदे वाली बात सोचते। कार्यकर्ताओं को भी अब तटस्थ हो जाना चाहिए ,क्या है कि जमाना बदल गया है, क्या पता कल को ये पार्टी छोड़ कर वो पार्टी पकड़नी पड़े । ऐसे में थोडी बहुत शर्मिंदगी तो होती ही होगी,स्वयं न भी हो तो मीडिया वाले करवा देते हैं।
वैसे टक्कर में बराबरी नहीं लगती एक मुख्यमंत्री दूसरी प्रदेश अध्यक्ष, अब देखना ये है कि कांग्रेसी (विशेषकर हाईकमान)इस लड़ाई को बराबरी का बनाने के लिए अपनी नेता का कितना साथ देते हैं।

Thursday, July 16, 2009

जैसे को तैसा

"रीता बहुगुणा जोशी" ने जो कहा एक दम चालू जुबान में कह दिया; ये बात तो आम आदमी रोज सोचता और बोलता है ,जब भी ये नेता-अधिकारी किसी पीड़ित व्यक्ति को मुआवजा देकर भूल जाते हैं ।
जोशी जी ने
नेताओं वाली भाषा का इस्तेमाल न कर के, भावावेश में आम आदमी की भाषा का इस्तेमाल कर दिया । "फ़िर भी... कीचड़ में पत्थर मर दिया" ।

बसपाई ये भूल गए की उनकी नेता के विचार भी ऐसे ही होते थे ।
जो भी हुआ उससे केवल न्यूज चैनल वालों को लाभ हुआ,इन्होने इसीलिए इस बात को इतना उछाला वरना किसी का ध्यान इस बात की तरफ़ नहीं जाता। इनका तो फायदा हुआ जोशी जी का कितना नुकशान हो गया ,पता नहीं। सच में न्यूज चैनलों की चांदी ही चांदी।
आजकल ये सचिन और काम्बली की दोस्ती के पीछे भी पड़े हैं।

पता नहीं ये समाज के भले के लिए काम कर रहे हैं या समाज में तोड़-फोड़ के लिए, और, व्यभिचार फैलाने वाले चैनलों और हीरो-हिरोईनों के प्रचार-प्रसार में अपना समय बिता रहे हैं बिना कुछ किए कराये पैसा भी खूब रेटिंग भी खूब । धन्य हो भारतीय समाचार चैनलों की नंगई के लिए ।

लोकतंत्र या बंधुआ मजदूरी

छोटा सा राज्य उत्तराखंड, जब उसके पूर्व मुख्य मंत्रियों ,वो भी केवल तीन पर, इतना(तीस लाख प्र.माह) खर्च होता है तो ये काफी विचारनीय प्रश्न है कि पूरे देश में कितना खर्च होता होगा। जो सेवानिव्रत हो गए हैं ये खर्च तो उन पर है। जो सेवा में हैं उनका तो हिसाब लगाया जाना मुश्किल ही है क्योंकि कागज किताबों से कई गुना ज्यादा वह भ्रष्टाचार से कमा रहे हैं ।
ये सब लोकतंत्र के नाम पर ठगी नहीं तो क्या है। और कुछ ही नेताओं की वंश परम्परा के कारण भारत के लोग बंधुआ मजदुर की तरह बंधे हुए नही हैं। वोट देना ही देना है नहीं दोगे तब भी कोई न कोई चुना जाएगा । मतलब न चाहते हुए भी कोई न कोई चुना जाएगा ।
फ़िर, आम आदमी को खाने को सूखी रोटी मिले न मिले पर इन्हें रसमलाई खिलानी पड़ेगी इनके मरने तक सारे नाज नखरे उठाने पड़ेंगे । मरने के बाद ,
फ़िर इनके बच्चे तैयार हो जायेंगे । ये सिलसिला थमता नहीं दिख रहा ।
अभी तो वह खर्च अलग हैं तो ये अपनी सनक पूरी करने के लिए करते हैं जैसे मायावती हाथी बनवा रहीं हैं


हिंग लगे न फिटकरी रोंग चोखा हम भी लोकतंत्र के बंधुआ मजदूर करते रहेंगे।

Wednesday, July 15, 2009

डॉक्टरों की हड़ताल

चिकित्सा कार्य अब पहले जैसा “सेवा कार्य” नहीं रहा। "व्यवसाय बन गया है"।
आरामपसंद जीवन पद्दति और आकस्मिक दुर्घटनाओं के कारण इनका व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है। देश-विदेश में भरपूर रोजगार के अवसर होते हैं,
इसीलिए ये लोग पढ़ने के लिए लाखों रूपये खर्च करने से नहीं कतराते । क्योंकि डॉक्टर बनने के बाद तो उससे कई गुना अधिक कमाई होनी है। सरकारी अस्पतालों में नौकरी करने का मतलब वह सरकार और जनता पर अहसान कर रहे हैं।
ऐसे में सरकारी डॉक्टरों की हड़ताल ,उस पर सरकार द्वारा उन्हें धमकाना कि नौकरी से निकाल देंगे “बकरी का ऊंट पर रौब ज़माने”जैसा लगता है। सरकार को सोच-समझ कर बोलना चाहिए ,क्या होगा, नौकरी से निकाल कर ? भूखे मर जायेंगे क्या? फ़िर हड़ताल करने का अधिकार सरकार ने ही तो उन्हें दे रखा है।बीमार मरें या तड़पें किसी को क्या। “बीमार गरीब आदमी”,होता ही मरने के लिए है ,और अमीर आदमी किसी भी बड़े अस्पताल में "इन्हीं" डॉक्टरौं से इलाज करवा लेता है। तो; ये केवल सरकार का दिखावा है, अगर धमकाना ही है तो इनकी डिग्री निरस्त करने को कह कर धमका सकते हैं पर सरकार ऐसा नहीं करेगी क्योंकि अधिकतर इन्ही के नेताओं के सगे सम्बन्धी डॉक्टर होंगे। रही नैतिकता की बात तो आज नैतिकता रही किसमे है जो दूसरे से नैतिकता की उम्मीद की जाए।
आखरी और खरी बात ये, कि जिनसे कोई काम नहीं होता है, सरकारी नौकरियों में , वही हड़ताल करते हैं। किसी ने सच ही कहा है कि
"खाली दिमाग शैतान का घर" होता है।
पिछले कुछ समय से देखा जाए तो सबसे ज्यादा हड़ताल सरकारी क्षेत्र में मास्टरों और डॉक्टरों की हो रही है ,दोनों ही मामलों में एक बात गौर करने वाली है कि न मास्टर अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाते हैं न डॉक्टर अपने सम्बन्धी का इलाज सरकारी अस्पताल में कराते हैं। यही बात नेताओं और अधिकारीयों पर लागू होती है।

Saturday, July 11, 2009

सरकार, तुम कहाँ हो ?

सरकार… सरकार…..ओ सरकार… ! तुम कहाँ हो; यहाँ हम लुट रहे हैं, पिट रहे हैं खाने को रोटी नहीं पीने को पानी नहीं,सब्जियां, दालें,आटा-चावल दूध,घी-तेल,जीने के लिए जरुरी हर चीज इतनी महंगी हो गई हैं कि,दिन भर की दिहाड़ी में एक समय की सब्जी आती है ,कैसे पेट भरें । पिछले बहुत समय से तुम्हें ढूंढ़ रहे हैं,मीडिया में तुम्हारी आवाज और चेहरा तो दीखता है पर सामने कभी नही दखाई दिए।
हम तुम्हारे ही कर्मचारियों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार से लुट रहे हैं, कर्मचारी ही क्यों स्वयं तुम्हारे (नेता)द्वारा भी तो हम लुट रहे हैं पर तुम कहीं नजर नहीं आते,रास्ता चलते तुम्हारी पुलिस कब- किसे गोली से उड़ा दे पता नहीं,फ़िर हम चिल्लाते रहते हैं ,तुम नजर नहीं आते बल्कि ऐसे मामलों में तो अदृश्य रह कर अपने कर्मचारियों का बचाव भी करते हो उन्हें निलंबित कर या लाईन हाजिर कर, घर बैठे वेतन पहुंचाते हो जो उनके लिए इनाम की तरह होता है,और मरने वाले के परिवार को मुआवजे की घोषणा(अहसान) करके भूल जाते हो ,वैसे भी; मुआवजे से तसल्ली होती है तो पुलिस में भर्ती अपराधियों को गोली मार कर उनके घर वालों को मुआवजा देना चाहिए। पर हम चिल्लाते रहे तुम ने नहीं सुना। मुझे लगा, तुम हो ही नहीं ;अगर होते तो जरुर सुनते।
लेकिन जब चुनाव होते हैं तब तुम्हारे होने का अहसास होता है।
जब गाडियों के काफिले में जनता पर जाम लगा कर तुम निकलते हो, तो तुम्हारे होने का अहसास होता है । जब तुम हो तभी तो तुम्हारे आने पर , रातों-रात रोड़ बन जाती है, जिसके लिए हम सालों से चिल्लाते रहे,हैलीपैड बन जाता है,व्यवस्था चाक-चौबंद हो जाती है….तब अहसास होता है कि तुम हो। पर मेरी(आम-जनता की) नहीं सुन रहे हो ।
अब देखो न बहुत समय से हमें पीने को पानी नहीं मिल रहा ,बोतल वाला पानी हमारे लिए बहुत महंगा है, पर बोतलों को देख कर एक प्रश्न दिमाग में उठता है कि इन पानी के सौदागरों को इतना पानी कहाँ से मिल जाता है कि जितनी चाहे आपूर्ति कर दें,ये ही क्यों, शराब के सौदागर भी तो करोड़ों लीटर पानी रोज खर्च कर रहे हैं , अन्य पेय अलग हैं।इनको तो पानी बेचने को मिल जा रहा है हमें पीने को भी नहीं आख़िर क्यों ?
तुम कहाँ हो कुछ देखते क्यों नहीं ? कुछ करते क्यों नहीं ? हम तो समझते थे बड़े ताक़तवर होओगे ,करोड़ों की संख्या से चुन कर आए हो, पर जिन्होंने तुम्हें चुना ,हर-बार तुम उन्हें ही भूल जाते हो। अपना और अपने कर्मचारियों का ही भला करने में रह जाते हो, क्योंकि वे (कर्मचारी) संगठित हैं (हड़ताल कर देते हैं) इसलिए ? और तुम, खुदमुख्तार हो इसलिए ? अपने और अपनों के लिए तो एक हजार से पॉँच हजार रूपये रोज और हमारी दिहाड़ी एक सौ रूपये रोज वो भी कुछ दिन।
सौ रूपये में हम क्या खाएं चालीस रूपये किलो टमाटर, इतनी ही महँगी अन्य सब्जियां तोरी,घिया आलू इत्यादि, क्या इनके आलावा भी गरीब आदमी के खाने को कुछ है ? फलों को तो केवल सूंघ कर मन-मना ले रहे हैं ,दालें व घी- तेल खाना तो छोड़ने पड़ेंगे । दूध जो मिल भी रहा है उसका भरोसा नहीं कि बिना जहर का होगा। वैसे तो तम्हारे दिखाई न देने का फायदा तुम्हारे कर्मचारी-अधिकारी खूब उठा रहे हैं ।
अब देखो न महंगाई तो “जो है वो है” पर खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट क्या तुम्हारे कर्मचारियों की मिलीभगत के बिना हो सकती है, अगर सुन रहे हो तो जरुर बताना ,दूध में मिलावट घी में मिलावट, हर वस्तु में मिलावट यहाँ तक कि जो स्वयं जहर है,शराब , उसमे भी जहर मिला दिया ।
सोचो ! अगर तुमने सालों पहले सुन लिया होता तो क्या अब भी ये हालात होते , इतने लोगों की जान जाती ? पर तुम अभी भी नहीं सुन रहे ,जरा बताओ तो, आजादी से पहले क्या जहरीली शराब से लोग मरते थे ,या मिलावट का धंधा इस तरह चलता था , हम तो मिठाईयों के स्वाद ही भूल गए क्योंकि मावा भी सिंथेटिक बनने लगा, आख़िर तुम अपनी शक्तियों का इस्तेमाल क्यों भूल रखे हो ,तुम्हारे नाकारेपन से अराजकता फ़ैल गई है,अपराधी केवल छुरे-बन्दूक से ही नहीं मार रहे ,सब्जियों तक में जहर के इंजेक्शन से भी मार रहे हैं।
वैसे भी खेती योग्य जमीन को तुम उद्योग और कॉलोनी बनाने को छीन लेते हो जिससे खाने की वस्तुयें कम पैदा हो रहीं हैं ,ज्यादा पैदावार को इंजेक्शन लगाने ही पड़ते हैं। नदी-नालों का पानी इतना जहरीला हो गया है कि जमीं में सब कुछ जहरीला पैदा हो रहा है। पर तुम न देख रहे हो न सुन रहे हो ।
सरकार, तुम टी.वी.और अखबार नहीं देखते क्या ,ख़ुद तो इनमें बहुत दिखाई देते हो,इनमें दिखने के साथ ही इन्हें देखा भी करो,पता तो लगे कि देश में जनता के साथ क्या हो रहा है। अपने अधिकारीयों द्वारा बनाये आंकड़ों पर तभी भरोसा करते हो शायद,जब इन्हें नहीं देखते। हुजुर, आकड़ों में तो महंगाई कम हो रही है,गरीबी कम हो रही है,भूख,बेरोजगारी कम हो रही है,अपराध कम हो रहे हैं ,जबकि ये सब बढ़ रहा है,और जो बढ़ा हुआ दिखा रहे हैं, वो सब कम हो रहा है। इसलिए टी.वी.अख़बार देखो ,शर्म से आँखें झुक जाएँगी,और शर्म आना अच्छी बात है तभी कुछ शक्तियों(कर्तव्यों) का भान होगा। जब शक्ति का भान होता है तो सरदार पटेल की तरह पुरे भारत को एक करने का जज्बा पैदा होता है। अरे, सरदार पटेल से नहीं सीखना चाहते तो अंग्रेजों से तो कुछ सीख लो , वो तो तुम्हारे निकट….. हैं।
हम तो तुम्हें कब से पुकार रहे हैं पर तुम अपने लिए मूर्तियाँ बनाने में,बंगले की सजावट में, पुलों के नामकरण में, उद्घाटनो में ,व्यस्त हो ,बस जनता की नहीं सुन रहे हो, आख़िर कब सुनोगे ?


Thursday, July 9, 2009

एक एम.एल.ए. की तमन्ना

"कई बार विधायक बन गया ,थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा भी हूँ,(न भी होता तो क्या) पर हाईकमान की नजर अभी तक मुझ पर नहीं पड़ी,समर्थकों द्वारा लौबीयिंग करना; मुझे आता नहीं ,तो कैसे मंत्री बनूँ"। ये समस्या कई विधायकों की है। उनके लिए नीचे एक तुक्का लिख रहा हूँ ,कागज पर उतार कर हाईकमान के पास भेज देना, "तुक्का कामयाब हो गया तो तीर; नहीं तो देना चीर"। आजमाने में क्या जा रहा है। अपने काम की पंक्तियाँ ही लिखना।

मैं भी अगर मंत्री होता,मेरे हर दरवाजे पर संतरी होता ।
दस-पॉँच बॉडीगार्ड होते,कई चमचे मेरे पास होते।
हर कोई मेरी जयकार करता,समारोहों में स्वागत-सत्कार करता।
मैं भी अगर……..
मंत्री बनने तक तो आम रहता ,बन कर सरकार हो जाता ।
पुराना बंगला-सजावट,कार इत्यादि सब बेकार हो जाता।
सरकारी कार तो होती ही ,वैसे भी कई कारें ले आता ।
मैं भी अगर……..
कई पुश्तों को धनवान हो जाता,बेशक धर्म-ईमान खो जाता।
घरेलू खाना-रहना किसे भाता,फाईव स्टार होटल ही में खाता; और पीता।
शरीर रोगी होता, तो होता ,विदेशी अस्पताल में तभी जा पाता।
मैं भी अगर……..
कई विश्वविद्यालयों से डॉक्टर की मानद उपाधि पा जाता,
क्योंकि चमचों के द्वारा लेखक;साहित्यकार,और कवि भी बन जाता ,
चमचों के ही कर-कमलों से समरोहों में अपना सम्मान करवाता।
मैं भी अगर……..
पॉँच वर्ष में चुनाव है आ जाता ,लोकतंत्र में ठगने का मूलमंत्र मैं भी पा जाता।
पत्नी,बच्चों व सम्बन्धियों को चुनाव लड़वाता,
जनता के भोलेपन से अधिकाधिक समर्थकों को येन-केन जितवाता ।
इस लोकतान्त्रिक दौर में ,बहुमत; क्या पता मेरे साथ हो जाता ,
तो, चाहे जैसा भी था खोटा या खरा मैं भी सी.एम. बन जाता ।
मैं भी अगर…….. .

Wednesday, July 8, 2009

“फर्जी मुठभेड़”

"सच क्या है" ये या तो पुलिस वाले जानते हैं या मरने वाला ।
बाकियों को पता लगना मुश्किल है,क्योंकि “ये हिंदुस्तान है”।
अगर पता लग भी गया तो भी क्या होगा , क्या आज तक कुछ हुआ ?
कुछ दिन की कैद वो भी कई साल मुकदमा लड़ने के बाद ।
दरअसल, जो कांटे कई तरह से आज हमें चुभ रहे हैं, वो
कभी हमारे पूर्वजों ने ही बोए हैं ,(बोए तो अंग्रेजों ने हैं पर खाद- पानी हमारे पूर्वज देते आए हैं जो इन्हें काट भी सकते थे) अब सूख कर इतने पक्के हो गए हैं कि जब चुभते हैं तो ,लहूलुहान कर जाते हैं ।
कहते हैं “बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए”
ऐसा ही बबूल का पेड़ हमारी कानून व्यस्था के रूप में अंग्रेजों ने बोया था,पुलिस प्रणाली उसी बबूल के पेड़ की शाखा है।
जब “ये” पेड़ लगाया था तब “वैसे अपराधी” कम होते थे । अंग्रेजो के “विरोधियों-क्रांतिकारियों” को ही अपराधी माना जाता था उन्हें जेलों में सड़ाने को या फर्जी मुठभेड़ में मारने को ये कानून बनाया था ।
इस कानून की एक विशेषता ये थी कि इनके अपने लोगों से यदि कोई अपराध हो जाता था तो ये ,उसकी जमानत कर के उसका बचाव कर लेते थे या दिखावे के लिए उसे जेल में बंद करके पूरी सुविधा का ध्यान रखते थे ,हमारे बहुत से तत्कालीन (१९४७से पहले के) नेताओं ने इसी सुविधा का लाभ उठाते हुए जेल यात्रा का रिकार्ड बनाया है। और दूसरी तरफ़ क्रांतिकारियों ने हजारों की संख्या में अंग्रेजों की गोलियां खायी हैं और गुमनाम मर गए।
जब भारत आजाद हुआ तो ये कानून बदलने चाहिए थे ,पर हमारे नेताओं ने इसे अपनी सुविधा के लिए "जस का तस" रहने दिया और हमारे आम आदमियों(पूर्वजों ने) उन्हें भरपूर समर्थन दिया , आज भी उनके "अंध भक्त" उनकी बुराई सुनने को तैयार नहीं (तोड़-फोड़ कर देते हैं)।
और( दिखावे के लिए) फर्जी मुठभेड़ के विरोध में धरना-प्रदर्शन करते हैं।
क्या अपने पूर्वजों की गलती को सुधारने के लिए हम कभी धरना प्रदर्शन करेंगे ?
मेरी ये बात भारत के किसी भी स्थान पर हुयी फर्जी मुठभेड़ के लिए लिखी गई है।

जब मुठभेड़ हो जाती है तब सब चिल्लाते हैं "पर उस कांटेदार पेड़ को उखाड़ने की पहल कोई नहीं कर रहा है"।

Tuesday, July 7, 2009

गुरु पूर्णिमा

आज गुरु पूर्णिमा है,माता-पिता,गुरु-देवता को चरणस्पर्शी प्रणाम।

हम अपनी पुरानी और स्वस्थ-सार्थक परम्पराओं को भूल गए ,और निरर्थक प्रचलनों के नाम पर अपनी सभ्यता-संस्कृती को कोसने लगे
बिना कुछ जाने, विदेशी या पश्चिमी परम्पराओं का अनुकरण करने लगे। हो सकता है कि विदेशी परम्पराओं में भी कुछ अच्छी हों ,फ़िर भी
“अपने घर का खाना छोड़ कर हमेशा दूसरों के घर खाने जाना”
अपना स्वाभिमान ही कम करता है, या "रोजाना होटल में खाना "आदमी को बीमार बना देता है। अपने यहाँ की अच्छी परम्पराओं को नहीं भुलाना चाहिए।
आज कल गुरुओं की भरमार है,हर जगह गुरु,बाबा,स्वामी,महाराज,संत-शंकराचार्य मिल जायेंगे,पर सब मूर्ख बनाने में लगे हुए हैं। कुछ तो प्रत्यक्ष रूप से ठग रहे हैं कुछ परोक्ष रूप से ,हर कोई ,”पर उपदेश कुशल बहुतेरे”की तर्ज पर
दुनिया-समाज को मूर्ख बनाने में लगा है ।
कहने के लिए सभी समाज का भला करने में लगे हैं , पर फ़िर भी समाज पतनशील होता जा रहा था । आज हिंदुस्तान सबसे आगे है भ्रष्टाचार में,रिश्वतखोरी में,

चरित्रहीनता में, अकर्मंयता में ,अपराध में ,चोरी और सीनाजोरी में । पर, कभी यही भारत,विश्व गुरु होता था सत्यनिष्ठा में,इमानदारी में,चारित्रिक मूल्यों में, अब, जब से “स्वामी रामदेव” का अवतरण हुआ है
बदलाव आरम्भ हो गया है,गुरु,महाराज,स्वामी,बाबा,संत-शंकराचार्यों की परिभाषा भी बदलने लगी है,
फ़िर भी “एक के तीन” बनाने वाले या हाथ से सोना और राख निकलने वाले बाबा पैदा हो जा रहे हैं,क्योंकि जब तक मूर्ख बनने वाले होंगे तो बनाने वाले पैदा होते रहेंगे ,होते रहे हैं। खैर ...... ।
अब बहुत समय बाद भारत को बाबा रामदेव जैसा व्यक्तित्व मिला है,जिस पर कुछ उम्मीद बनती दिख रही है।
आज गुरु पूर्णिमा पर हम बाबा रामदेव को कोटि-कोटि चरणवंदन करते हैं।

Monday, July 6, 2009

हो जाओ तैयार

आख़िर जब इंग्लैंड में हो सकता है तो यहाँ क्यों नहीं ,
अंग्रेज हम पर दो सौ साल राज कर के गए हैं। अपने विचार ही नहीं
जींश तक (कुछ लोगों में) छोड़ कर गए हैं । वो सब इकट्ठे होकर तुम्हारा साथ देंगे ।
ये लो भई प्रगतिशील बुद्धिजीवियो(बौद्धिक नक्सलवादियो),
तुम्हारे अनुकरण के लिए पश्चिम से एक और अनुकरणीय
कर्म की ख़बर आ गई है।
देख लो(फोटो में ) और तैयारी शुरू कर
दो। हाँ, शुरुआत अपने घर-परिवार से करना,न्यूज चैनल वाले
-वालियां अपने को थोड़ा सा, "और" आधुनिक सोच वाला बना लो,
पर
अनुकरण करने से पहले अपने विज्ञापन दाताओं से जरुर पूछ लेना।
शुरू में थोड़ी दिक्कत आएगी ,क्योंकि पूरे कपड़े पहने हुओं की भीड़ में
अभी तक कम, कपड़े वालियां ही ठीक से सहज नहीं हो पाई ,(इसीलिए तो
सबको कम कपड़े पहनने की प्रेरणा देती हैं जिससे वह अलग न लगें),
ये तो एकदम नग्न हो जाने की बात है,कोई कैसे मानेगा। क्योंकि ये
चाहेंगी सब नग्न हों जिससे ये अलग न दिखें।
और ज्यादा दिक्कत
आई तो कानून है ना ,उसमे कुछ न कुछ ऐसा होगा जो तुम्हारे
हित में होगा ।
आख़िर जब इंग्लैंड में हो सकता है, तो यहाँ क्यों नहीं ?
अंग्रेज हम पर दो सौ साल राज कर के गए हैं। अपने विचार ही नहीं
जींश तक (कुछ लोगों में) छोड़ कर गए हैं ।
वो सब इकट्ठे होकर
तुम्हारा साथ देंगे । और कोई दे न दे, टी.वी.और फिल्मों वाले तो हैं ही
कुछ प्रोफेसर,कुछ समाजशास्त्री,कुछ लेखक-पेंटर-कलाकार व
मानवाधिकारवादी सामाजिक कार्यकर्त्ता,एन.जी.ओ.आदि ,मतलब हर जगह
तुम्हें अपने सहायक मिल जायेंगे । इसलिए हो जाओ तैयार।

Sunday, July 5, 2009

शाबाश समलैंगिको

शाबाश समलैंगिको-शाबाश,(शाबाशी इसलिए कि तुमने बेशर्मी की हद पार कर ली ) अपने समर्थकों,प्रगतिवादियों,खुली सोच वालों,आधुनिक विचार वालों को भी मेरी तरफ़ से बधाई दे देना ।
तुमसे बड़ा काम तो उन्होंने किया है, जिस व्यवहार को समाज,प्रकृति और सदाचरण के विरुद्ध माना जाता है,जिसे मानसिक रोग माना

जाता है, उन्होंने उसको सही ठहराने का साहस दिखाया है।
अंग्रेजों के बनाये जिन कानूनों को स्वतंत्र भारत के बड़े-बड़े नेता नहीं बदल पाए ,इन आधुनिक बुद्धिमानों ने उस १५० साल पुराने कानून को बदलवा दिया।बौद्धिक और चारित्रिक नक्सलवाद का उदहारण पेश किया है इन्होने। धन्य है इनको, कि इन्होने कितनी बारीकी से कानून का अध्ययन किया होगा जो इनको ये धारा नजर आई ,वरना बहुत से ऐसे कानून हवा में तैर रहे है,जिन्हें आम आदमी तक देख लेता है और देख कर या तो हँसता है या माथा पीटता। (उनके लिए ये मानवाधिकारवादी कभी नही बोले) धन्य है इनको, जो, इन्होने एक रोग को सामान्य व्यवहार सिद्ध कर दिखाया । अब शायद समाज में किसी को “ठरकी”कह कर अपमानित नही किया जाएगा । वैसे भी ये प्रगतिवादी समाज के डर से कब चुप बैठने वाले ,ये तो चाहते ही हैं कि समाज का डर आम जन में से निकल जाए ,सभी निर्लज्ज होंगे तो इनके लिए आसानी होगी ,भारत को यूरोप-अमेरिका बनाने में,और इनका इस दिशा में ये प्रयास सफल हुआ,बड़ी खुशी(इनके लिए) की बात है। इनके इस जज्बे को सलाम ,ये बेशक कम संख्या में हैं पर हैं हर जगह टी. वी .में ,फिल्मों में,संस्कृती कर्मियों में ,पत्र -पत्रिकाओं में ,एन जी ओ तो इनके मुख्य साधन हैं सरकारी विभाग विशेषकर शिक्षा विभाग में भी ये सक्रीय रहते हैं । इनमे भी महिलाएं ज्यादा सक्रीय रहती हैं । ये महिलाएं भारत की महिलाओं को दकियानूसी के बंद माहौल से यूरोप के खुलेपन वाले माहौल में ढालना चाहती हैं,जिसमे जब मर्जी तलाक़,लिया-दिया जा सकता है,तलाक़ लेने-देने की जरुरत ही क्यों हो बिना विवाह किए साथ रहने की वकालत भी तो ये प्रगतिवादी करते हैं ,इतने विरोधों के बावजूद भी ये इतने सक्रीय रहते हैं कि इन्हें धन्य हो कहना ही पड़ता है। इनकी तारीफ़ में लिखता तो बहुत कुछ पर इतना ही बहुत है ,ज्यादा के लिए अंग्रेज गए औलाद छोड़ गए पढ़वा देना ।